- 1
- 2
- 3
- 4
- 5
- 6
- 7
- 8
- 9
- 10
- 11
- 12
- 13
- 14
- 15
- 16
- 17
- 18
- 19
- 20
- 21
- 22
- 23
- 24
- 25
- 26
- 27
- 28
- 29
- 30
- 31
- 32
- 33
- 34
- 35
- 36
- 37
- 38
- 39
- 40
- 41
- 42
- 43
- 44
- 45
- 46
- 47
- 48
- 49
- 50
- 51
- 52
- 53
- 54
- 55
- 56
- 57
- 58
- 59
- 60
- 61
- 62
- 63
- 64
- 65
- 66
- 67
- 68
- 69
- 70
- 71
- 72
- 73
- 74
- 75
- 76
- 77
- 78
- 79
- 80
- 81
- 82
- 83
- 84
- 85
- 86
- 87
- 88
- 89
- 90
- 91
- 92
- 93
- 94
- 95
- 96
- 97
- 98
- 99
- 100
- 101
- 102
- 103
- 104
- 105
- 106
- 107
- 108
- 109
- 110
- 111
- 112
- 113
- 114
- 115
- 116
- 117
- 118
- 119
- 120
- 121
- 122
- 123
- 124
- 125
- 126
- 127
- 128
- 129
- 130
- 131
- 132
- 133
- 134
- 135
- 136
- 137
- 138
- 139
- 140
- 141
- 142
- 143
- 144
- 145
- 146
- 147
- 148
- 149
- 150
Psalms - Chapter 55
2 (1-2) ईश्वर! मेरी प्रार्थना पर ध्यान दे, मेरी विनय की उपेक्षा न कर।
3) मेरी सुन और मुझे उत्तर दे, मैं अपने कष्टों से व्याकुल हूँ।
4) शत्रु के कोलाहल और विधर्मी के अत्याचार के कारण मैं विलाप करता हूँ; क्योंकि वे मेरे विरुद्ध षड्यन्त्र रचते हैं और क्रोध में मुझ पर अत्याचार करते हैं।
5) मेरा हृदय मेरे अन्तरतम में तड़पता है, मुझ पर मृत्यु का आतंक छाया है।
6) मैं भय से काँपता हूँ, सन्त्रास मुझे अभिभूत करता है।
7) इसलिए मैंने कहा: "ओह! यदि कपोत की तरह तेरे भी पंख होते, तो मैं कहीं उड़ जाता और विश्राम पाता!
8) मैं कहीं दूर भाग जाता और मरुभूमि में बसेरा करता;
9) मैं प्रचण्ड वायु और घोर आँधी से बचने के लिए शीघ्र ही शरणस्थान पाता।"
10) प्रभु! दुष्टों में फूट डाल, उनकी भाषा में उलझन उत्पन्न कर; क्योंकि मैंने नगर में हिंसा और अनबन देखी है।
11) हिंसा और अनबन दिन-रात हमारे नगर की चारदीवारी में विचरती हैं और भीतर अन्याय और बुराई है।
12) नगर के भीतर अपराध का बोलबाला है, अत्याचार और कपट उसकी सड़के नहीं छोड़ते।
13) यदि कोई शत्रु मेरा अपमान करता, तो मैं सह लेता। यदि मेरा बैरी मुझ से विद्रोह करता, तो मैं उस से छिप जाता।
14) किन्तु तुम यह करते हो, मेर भाई, मेरे साथी, मेरे अन्तरंग मित्र!
15) जिसके साथ मैं ईश्वर के मन्दिर में मधुर संलाप करता था, जब कि हम भारी भीड़ के साथ चलते थे।
16) मृत्यु अचानक मेरे शत्रुओं पर आ पड़े, वे जीवित ही अधोलोक में उतरे; क्योंकि दुष्टता उनके यहाँ निवास करती है, वह उनके अन्तरतम में घर कर गयी है
17) लेकिन मैं ईश्वर की दुहाई देता हूँ, प्रभु मेरा उद्धार करेगा।
18) शाम, सुबह और दोपहर मैं रोता-कराहता रहता हूँ। वह मेरी पुकार सुनता है।
19) उसने मेरे बैरियों से मेरा उद्धार कर मुझे शान्ति प्रदान की; क्योंकि मेरे बहुत-से विरोधी हैं।
20) अनन्तकाल से स्वर्ग में विराजमान ईश्वर मेरी प्रार्थना सुने और उन्हें नीचा दिखाये; क्योंकि, उनका हृदय-परिवर्तन नहीं होगा, वे ईश्वर पर श्रद्धा नहीं रखते।
21) उस मनुष्य ने अपने पड़ोसी पर हाथ उठाया, उसने मैत्री का वचन भंग किया।
22) वह चिकनी-चुपड़ी बातें करता है, किन्तु उसके हृदय में लड़ाई का भाव है। उसके शब्द तेल-जैसे कोमल, किन्तु कटार-जैसे पैने हैं।
23) तुम प्रभु पर अपना भार छोड़ दो, वह तुम को संभालेगा। वह धर्मी को विचलित नहीं होने देगा।
24) प्रभु! तू उन्हें अधोलेक में उतारेगा। रक्त-पिपासू और कपटी मनुष्य अपनी आधी आयु भी पूरी नहीं करेंगे। मुझे तो तेरा भरोसा है।